
लखनऊ के हजरतगंज की रहने वाली कविता निषाद ने बुधवार को गोमती में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। पति महेश की मौत के बाद वे लगातार न्याय की गुहार लगाती रहीं, लेकिन जब हर दरवाजा बंद मिला तो उन्होंने खुद मौत को गले लगा लिया।
गांव-गांव सरकार भवन! अब “दरखास देईं त तुरंते सुनवाई”
FIR दर्ज, फिर भी आरोपी ‘आदरपूर्वक’ आज़ाद
कविता के पति महेश ने 2 अप्रैल को आत्महत्या कर ली थी। उन्होंने एक वीडियो में सीधे तौर पर सेवानिवृत्त जज अनिल कुमार श्रीवास्तव और उनकी पत्नी को जिम्मेदार ठहराया था। एफआईआर दर्ज हुई लेकिन धारा हल्की थी, और आरोपी ने कोर्ट से स्टे ले लिया। सवाल ये है – क्या जज होना इंसाफ से ऊपर है?
महेश का आखिरी संदेश – “मम्मी जी, अब नहीं मिलूंगा…”
महेश, जो वर्षों से जज साहब के घर खाना बनाते थे, उन पर 6.5 लाख की चोरी का आरोप मढ़ा गया। जबरन थाने बुलाया गया, पीटा गया, धमकाया गया। आखिरकार उन्होंने कहा – “अब नहीं मिलूंगा” – और फांसी लगा ली।
कविता की जद्दोजहद – पुलिस, चौकी, थाने और बंद कान
कविता पुलिस चौकी के चक्कर काटती रहीं, लेकिन सारा सिस्टम ‘सम्माननीय लोगों’ के आगे झुकता रहा। उनके भाई अंशु का कहना है – “अगर समय रहते कार्रवाई होती, तो बहन आज जिंदा होती।”
सिस्टम का जवाब – ‘FIR थी, पर गिरफ्तारी वाली नहीं’, वाह रे व्यवस्था!
हजरतगंज के इंस्पेक्टर का बयान भी उतना ही ठंडा था जितनी इस सिस्टम की संवेदना – “गिरफ्तारी की धारा नहीं थी, कोर्ट से स्टे है, जांच चल रही है…”। सवाल यह है कि क्या गरीब का इंसाफ फाइलों में ही दबकर मर जाता है?
पारिवारिक संपत्ति विवाद – या जांच की दिशा मोड़ने की चाल?
पुलिस का दावा है कि कविता के परिवार में संपत्ति को लेकर भी विवाद था। सवाल यह है – क्या हर आत्महत्या को ‘पारिवारिक विवाद’ कहकर सिस्टम खुद को क्लीन चिट दे सकता है?
न्याय या रुतबा? – जनता पूछ रही है जवाब!
महेश और कविता की मौतें एक नहीं, दो जिंदगियों का सिस्टम के आगे आत्मसमर्पण हैं। क्या जज का पद इस देश में जवाबदेही से ऊपर है? क्या गरीब का जीवन सिर्फ रिपोर्ट में एक “केस नंबर” बनकर रह गया है?